अमर उजला में प्रकाशित
कभी गांव की महिलाएं अपने खर्च के लिए पुरुषों पर ही निर्भर रहती थीं। मगर, अब ऐसा नहीं है। ग्रामीण क्षेत्र की महिलाएं स्वरोजगार करके आत्मनिर्भर बन रही हैं। एक साल के अंदर स्वयं सहायता समूहों से 95 हजार से ज्यादा महिलाएं जुड़कर न केवल स्वरोजगार कर रही हैं, बल्कि वह आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर भी बन चुकी हैं। कई समूहों का कारोबार तो बाहर भी अपनी धाक जमा चुका है।

अब समूह की महिलाएं मोमबत्ती, दरी गलीचा, जूता चप्पल निर्माण, कढ़ाई-बुनाई, चूड़ियां बनाना, पशुपालन, डेयरी बिजली बिल वसूली, बाल पोषाहार के पैकट बनाकर खासी कमाई करती हैं। बरौली ब्लॉक के गांव कोलखा की कमलेश कुमारी ने एक साल पहले 12 महिलाओं को इकट्ठा करके समूह बनाया। समूह ने जूता निर्माण का काम शुरू किया। कोरोना काल में भी इनके काम पर असर नहीं पड़ा। अब हर माह समूह की आमदनी 50 हजार से ऊपर है। जूते का कारोबार आगरा से बाहर भी फैलने लगा है।

सरकार ने स्वयं सहायता समूहों के काम का दायरा भी बढ़ाया है। वित्तीय वर्ष की समाप्ति तक डेढ़ लाख महिलाओं को रोजगार देने का लक्ष्य है। शमशाबाद ब्लॉकों में आठ हजार से ज्यादा समूह बनाकर 95 हजार महिलाएं स्वरोजगार से जुड़ चुकी हैं। बैंकों की आर्थिक मदद से समूहों की आमदनी भी कई गुना बढ़ गई है।

गांव की कोई भी महिला साथी महिलाओं को जोड़कर समूह बना सकती है। ब्लॉक में पंजीकरण कराना होता है। बैंक में समूह का कैश क्रेडिट लिमिट (सीसीएल) खुलता है। समूहों को 4 प्रतिशत ब्याज पर ऋण आसानी से मिलता है। तीन साल में ऋण देने की सीमा छह लाख तक है। साख ठीक रहने पर 10 लाख का लोन मिल सकता है। बेहतर काम करने पर 500 समूहों को सखी कैडर मिला है। कैडर की महिलाएं नए समूह बनवाकर अन्य महिलांओं को रोजगार के लिए प्रेरित करती हैं।

स्रोत